मेले की प्रारंभिक अवस्था

भगवान जम्भेश्वर जब वर्तमान थेए वे समराथल धोरे पर हरि कंकेडी के नीचे विराजमान होकर सदुपदेश देते रहते थे । जुगती और मुगती की वाणी कहते थेए तो उनके आसपास निरंतर एक अदभुत वातावरण रहता थाए जो अपने आप में सुहावने मेले सा लगता था । अनेक लोग उनके दर्शन.लाभ लेकर धन्य हो जाया करते थे । यह मेला ५१ वर्षों तक समराथल पर निरंतर ही रहा था ।

इस मेले से असंख्य लोग प्रभावित हुए थे और गुरु महाराज के उनके शिष्यों बन गए थे । शिष्यों का एक अलग समाज बन गयाए जो २९ धर्मों की आचार संहिता को मानने लग गयाए यह समाज बिशनोई समाज के नाम से पृथक पहचान बना चुका था । अतरू गुरु महाराज के स्थान पर लगने वाले मेले में केवल बिशनोई सम्मिलित होते थे । उनको सामुहिक रुप से धर्मलाभ होता था । आपसी प्रेम बढ्ता था । एक.दुसरे से अनेक प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान भी सीखाते थे । परिचय व पहचान बढती थी ।

गृह्स्थी लोग घर के कामकाजों से विश्राम रखकर वहां जाते तो में दानए संतोष व धर की भावना प्रबल होती थीए परिणाम स्वरुप लोगों को आत्मिक शांति मिलती थी । यह क्रम चलते.चलते विण् संण् १५९३ मिगसर बदी ९ को श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ने ईहलोक से प्रयाण कर लीया । एक कवि ने लिखा है .. लालासर की साथरी पहुंच कियो प्रयाण । ईल मांही अंधियारों हुवो ज्युं भुमि वरत्यो भाण ॥ अतरू इसके तीन दिन बाद गुरु महाराज द्वारा बताए गए स्थान तालवे मे समाधि लगा दी गई ।

जम्भोजी महाराज के प्रिय शिष्य रणधीरजी बाबल ने विण् सण् १५९३ पौष सुदी २ सोमवार को इस समाधि स्थल पर मंदिर बनाने के लिए नींव रखी और विण् सण् १५९७ चैत सुदी ७ शुक्रवार की मुख्य मंदिर बन कर तैयार हो गया था । एक कवि ने छ्प्पय लिखा है .

श्री गुरु जांभ शिष्यए भक्त रणधीर भंडारी ।
सुवरण की जो सिलमए अछ्य पाई उपकारी ॥
ताते करि करि दानए मान पायो मरुधर में ।
कीरतिलता अखुटए घणी पसरी घर घर में ॥
मंदिर मुकाम विरच्योमहाए देखि दुष्टजन जरि गए ।
खल गरल खवायो ताहितेए तन तजि ध्रव यश करि गए ।

इस प्रकार चैन थापन नामक दुष्ट व्यक्ति ने धोखे से भोजन मे जहर देकर रणधीर जी बाबल को चिरनिद्रा में सुला दिया । परिणाम स्वरुप स्थिति डांवाडोल हो गई और समाज के अन्य लोगों ने धीरे.धीरे सारसंभाल ली। विण् संण् १६०० क्रार्तिक सुदी पुर्णिमा के दिन मंदिर पर मकराने का कलश बिशनोई पंचायत द्वारा चढाया गया।

सामाजिक विकास कि गति लगभग अवरुध्द हो गई थीए लेकिन विण् सण् १६११ को वील्होजी महाराज ने दीक्षा ग्रहण की समाज में रक्त का संचार किया। उन्होंने मुकाम का आसोजी मेला प्रारंभ किया था। फाल्गुनी मेला जाम्भोजी के समय से जबरद्स्त भरता आया है।

आज से कुछ वर्षो पुर्व तक लोह ईन मेलों में तीन से सात दिनों तक तहरते थे। आवागमन के साधन ऊंट्गाडी या बैलगाडी होती थी। वे राशन.पानीए ईंधन आदी साथ लेकर चलते थे। मेले में अलग.अलग गांवों के डेरे ;कैम्पद्ध निश्चिन स्थानों पर होते थे। डेरों में भोजन हाथ से बनाया करते। कीर्तनए भजनए साखी गाते शब्दों का पाठ करते थे। एक दिन में तीन बार मंदिर के दर्शन करते थे। रत्रि.जागरणों मे अलग.अलग कई स्थानों पर धर्म.प्रचार एवं सत्संग होताथी।

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