समुदाय

भारतवर्ष में इतनें धर्म फैले हुए है कि यदि इसे धर्मो का देश कहा जावे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। धर्म का शाब्दिक अर्थ 'धारण करना' है, अर्थात धर्म हमें वह मार्ग दिखाता है, जिस पर चलकर हम लौकिक सें अलौकिक की ओर्, आत्मा से परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकते है। धर्म का मुख्य उद्देश सभी जीवों का कल्याण करना है। धर्म की विभिन्न शाखाओं में से हमारा विशनोई धर्म भी एक है। हमारा धर्म जातिविहिन मानव्-धर्म है। इसमें विभिन्नता में एकता स्थापित करने का प्रयास कीया गया है। इसमें भारत की सभी जातिया --- ब्राह्मण्, क्षत्रिय्, वैश्य, शूद्र शामिल है। नका धर्म एक विशनोई धर्म है । आज और आज से पूर्व जाति-भेद्, संम्प्रदाय्-भेद और धर्म्-भेद के कारण परस्पर अलगाव था। हमारे धर्म ने इस अलगाव को दूर कर एकता का महामंत्र फूंका---"उणतीस धर्म की आखडी, हिरर्द धरिये जोय्। जाम्भोजी किरपा करी, नाम विशनोई होय।"
हमारे धर्म में ऊंच्-नीच्, भेद-भाव की भावना पर कडा प्रहार किया गया है। सबके वही श्वास हैं, वही मास है, वही देह्, वही प्राण है। सब प्राणी एक ही जगह से आए है, फिर उत्तम नीच के भाव को लेकर यह अशांति क्यों? भगवान जम्भोजी के शब्दो में----- "तइया सासूं तइया मासूं, तइया देह दमोई। उत्तिम मधिम क्यों जाणीजै बिबरसि देखी लोई। "हमारे धर्म में कोई आडम्बर नही है। परन्तु हमारे गुरुजी ने कथनी और करनी के सामंजस्य पर बडा बल दिया है। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन कर्तव्य का पालन करते हुए कर्ममय और श्रमपूर्ण बिताया, उसी का उपदेश उन्होंने हमें दिया-- "हिरदै नांव विसन को जंपै, हाथे करो ट्बाई। "अहिंसा के महत्त्व और जीवहत्या की निंदा हमारे धर्म में की गयी है। हिंसा के लिए श्री जम्भोजी ने हिंदू, मुसलमान्, साधु, सन्यासी, जोगी सभी को फटकारा है। आपने कहा कि मूक पशु की हत्या क्यों करते हो? उसी का दूध पीकर पुष्ट होते हो और उसी को गर्दन पर छुरी चलाते हो। तुम्हें उसकी पीडा का ध्यान क्यों नहीं आता? जम्भवाणी में कहा है--- 'रे विनहीं गुन्है जीव क्यू' मारी? थे तकि जांणों तकि पीड न जांणी "पशुओं की सहज प्रव्रुत्ति का जिक्र करते हुए श्री जाम्भोजी ने कहा---" चरि फिरि आवै सहजि दुहावै तिहका खीर हलाली।"

हमारे धर्म में शब्दवाणी का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें जिन बातों का उल्लेख किया है, उनका कारण भी बडा व्यावहारिक है। जो व्यक्ति आलस्य्, भ्रम्, प्रमाद्, अहंकार्, स्वार्थ में पडे हुए है, उन्हें चेताना और परिश्रमशील बनाना है। उन्हें समझाना कि सांसरिक भोग ही सब कुछ नहीं है। मोटर्, बंगला, कार से ऊपर परोपकार्, हरिभजन और प्राणीमात्र की सेवा है। जीव का वास्तविक घर तो आगे हे। यहां तो वह थोडे समय के लिए आया है।यह तो 'गोवळ्वास्' है, यहां का आधोचार तो झूठा है। गुरुवाणी में लिखा--- 'घर आगी अत गोवळ्वासी कूडी आधोचारी 'हमारे धर्म में अमावस्या के व्रत का विधान है। इसके द्वारा हमें बताया गया है कि अमावस्या के बाद चंद्रमा उत्तरोत्तर व्रुधि करता हुआ पूर्णिमा के दिन पूर्णता प्राप्त करता है। उसी प्रकार हमारी आत्मा भी शनै: शनै: शुभ कर्मो के द्वारा उत्थान करके ज्योतिस्वान बनेगी। इसी उद्देश की पूर्ति के लिए 'जम्भा या जागरण् 'की प्रणाली प्रचलित है, जिसमें गायणाचार्य एकत्र होकर गुरु महाराज के भजन्, कीर्तन करते है। धर्म की सबसे बडी विशेषता है, उसकी शाश्वतता अर्थात धर्म में जो बातें कही गई हैं, वे ही कालांतर में भी सच्ची साबित हुई हैं। इस कसोटी पर भी हमारा धर्म खरा है।
आज से ५०० वर्ष पहले जो नियम बनाये गये थे, यथा-क्षमा, दया, प्रेम्, अहिंसा आदि आध्यात्मिक बातें एवं पानी छानना, मीठी वाणी बोलना, स्नान करना, यज्ञ्-व्रत करना आदि व्यावहारिक बातें आज भी शाश्वत है। वे आज के युग में भी सार्थक है। आज विश्व में कम से कम आधी जनता नशे की शिकार है--- वह चाहे गांजा, अफिम्, बीडी, शराब्, सिगरेट्, चाय कुछ भी हो। श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ने सब नशों की मनाही की है--- "अमल तमाखू भांग मद्य मांस सूं दूर ही भागै। "आज वन्य जीवों की रक्षा करो, व्रुक्ष लगाओ आदि बातों पर जोर दिया जा रहा है। विशनोई धर्म में इसे वर्षो पहले ही महत्त्व दिया गया था।भगवान श्री ने कहा- "जीव दया पालणी, रुख लीलो नहीं घावै।" सारांश में कह सकते है कि हमारे धर्म में बुध्द की अहिंसा, ईसा की करुणा, वेद्-पुराणों की सार्थकता सम्मिलित है, जिनका पालन करने पर कोइ भी जीव सहज ही मोल प्राप्त कर सकता है। हमारे धर्म ने हमें सुद्रुढ नैतिक धरातल प्रदान किया है।


विक्रम सम्वत १५४२ में कर्तिक वदि अष्ट्मी को समराथल घोरे पर युगपुरुष्, विष्णु के अवतार एवं एक दिव्य्-अलौकिक आभा से युक्त महान विभूति श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ने 'कलश' स्थापना करके विशनोई धर्म की नीव डाली थी। आज उनके द्वारा स्थापित धर्म को पांच सौ वर्ष हो गए हैं।अस्तु,यह समीचीन ही होगा कि हम तत्कालीन्, स्थापना-काल की, परिस्थितियों, परवर्ती सुधारों एवं मौजूदा परिस्थितियों की समग्र मानव्-समुदाय को क्या उपादेयता रही है?
जाम्भोजी का अवतरण ऐसे समय में हुआ, जो इतिहास में एक अंधेरे युग के नाम से जाना जाता है। मानव मन ढोंगियों, मसाणी कलाबाजों, काजियों, पण्डितों, पुरोहितों, धूर्त साधुओं, नाथों, जोगियों, पुजारियों और भोपों-भरडों जैसे असंख्य पाखण्डियों से परिवेष्टित था । अशिक्षित एव भोले-भाले, प्राकृतिक आपदाओं एवं तज्जनित कष्टों से दु:खी लोगों का ये लोग भरपूर नाजायज फायदा उठाते थे। जाम्भोजी के ही शब्दों में-- चोबीस चेडा काळिंग केडा, यौ, पडीला अर्भ दोजेगे।मूर्ति-पूजा, तीर्थ्-यात्रा, कर्म्-कांड्, टूणां-टोटका, भोपा-डफरी, जादू-टोना, जन्तर्-मंतर आदि-आदि अन्यान्य कुरीतियों के गर्त में समाज इस कदर धंसा हुआ था कि उस समय पाखंड-कर्मो से उबारने वाला कोई व्यक्ति नजर नहीं आता था, जो उन्हें सन्मार्ग बता सके। लोगों की इस दुखित्, पीडित्, मर्माहत्, आक्रान्त मनोदशा को सही दिशा देने का परम पुनीत कार्य किया श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ने। उन्होंने किसी पूर्व प्रचलित मतान्तर का सहारा नहीं लिया था।
एक मौलिक विचारणा का प्रतिपादन उन्होंने किया और इस विचारणा में कितना आकर्षण था, यह इसी सें स्वयंसिध्द है कि उनके पास जो भी, जिस भाव से आया, उन्होंने उसे स्वीकार किया। उनके अनुयायिंयो में ब्राम्ह्मण्, रजपूत्, दर्जी, नाई, मोची, भील, सुथार्, चारण्, भाट्, जाट्, मुसलमान्, वैश्य्--सभी जातियों के लोग हैं। उन्हीं के शब्दानुसार्--- जो ज्यूं आवै, सो त्यू थरपा, साचा स्यूँ सत भायी। उनका भ्रमण अत्यन्त विस्त्रुत था और जो भी उनके संपर्क में आया, उसने उनका अनुयायी बन एक पुण्य धारा-प्रवाह में गोता लगा, अपने को धन्यभागी माना। यद्दपि लोक्-व्यवहार से सम्वन्वित अनेकश: स्वार्थ परक पूछने वाले भी उनके पास आते थे; परन्तु वे बडी चतुराई से उनके मन्तव्य की स्वार्थपरता से उन्हें अवगत करा देते थे। कर्म की सात्त्विकता पर उनका विशिष्ट जोर रहा यथा उत्तिम कुलि का उत्तिम न होयबा, कारण किरिया सारु।
जाम्भोजी ने ५१ वर्ष तक घूमते-फिरते विभिन्न स्थानों पर अपने मत का प्रचार किया। यही कारण हैं कि उनके अनुयायी विभिन्न स्थानों पर विभिन्न नामकरणों से परिभाषित हैं, यथा--विशनोई, बणिया विशनोई, जम्भैया आदि । उनके भ्रमण-स्थलों में मुकाम्, जाम्भोलाव्, रणेसर्, भीयासर्, पीपासर्, जांगलू, रोटू, लालासर्, समराथल्, लोदीपुर्, नगीना, रामडास्, लोहाबट आदि तो मुख्य है; जहा उनकी साथरियां बनी हुई हैं; परन्तु उनका विस्त्रुत भ्रमण तो और भी ज्यादा था, यथा,-लंका, पाटण्, द्रोणपुर्, छापर्, रणथंम्भीर्, दिल्ली, मालवा, खुरासान्, ईडर्, उज्जैन्, सिन्ध आदि। धर्म की गिरती, पूर्ववती परिवेश की ओर अग्र्सर स्थिती को संभाला और एक नवचेतना जाग्रत की। विशनोई साधुओं और कवियों के रुप में ऊदोजी नैण्, कैसोजी गोदारा, परमान्दजी बणियाल्, अल्लूजी कविया, गोकलजी आदि के नाम अग्रगण्य हैं। परन्तु जाम्भोजी का अनुयायीवर्ग मूलतः क्रुषक व वैश्य वर्ग का होने से, समय्-समय पर उनको मार्ग्-दर्शन के लिए साधुओं की आवश्यकता थी; जो विविध क्षेत्रों एवं काल्-विशेष में सर्वदा अनुकूल न रहने से, निरन्तर समाज की उन्नति नहीं हो सकी। वैसे साधु, गायणा व थापन्; स समाज के लोगों में व्याप्त हैं, जिनसे उनकी पहचान अलग से होती रही है।
जीव-रक्षार्थ प्राणों की आहुतियों और हरे व्रुक्षों की प्रतिपालना में जाम्भोजी के अनुयायियों की प्रतिबध्द्ता विश्व्-इतिहास में बेमिसाल है। सम्वत १७८७ की भादवा सुदि दसमी को ३६३ व्यक्तियों का बलिदान हुआ, जो हरे व्रुक्ष खेजडी की रक्षार्थ था। यह बात विश्व के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। इस अवधारणा ने जाम्भोजी की शिक्षाओं की उपादेयता पर विश्व्-स्तर पर मानव मात्र के लिये, अनिवार्यता की मुहर लगाई। यही नहीं,सम्वत १६६१ का "करमा और गोरा का साका" सम्वत १७०० का मेडते के पोलावास के 'बूचोजी ऐचरा का साका' तथा जीव्-रक्षार्थ बलिदान हुए। ऐसे ही असंख्य बलिदानों की गाथाएं निश्चित रुप से गौरव के साथ हमारा मस्तक ऊपर उठाने की शहादत होंगी। १९८१ से १९९१ का दशक "विश्व पर्यावरण दशक्" के रुप में मनाने का संयुक्त राष्ट्र संघ का नजरिया वक्त की मांग है। इस विचारणा में जाम्भोजी के विचारों को विश्व्-मंच पर उजागर करने की महती आवश्यकता है। वन्य प्राणिंयों का संरक्षण, हरे व्रुक्षों की प्रतिपालना और हवन्, ये तीनों आयाम्---पर्यावरण की धुरी हैं और इनका प्रतिपादन गुरु जम्भेश्वर के अलावा, आज तक अन्य किसी ने भी समग्र रुप में नहीं किया है।

Site Designed-Maintained by: TechDuDeZ,Pune