श्री १०८ श्री गुरु जम्भेश्वरजी भगवान का जन्म सम्वत १५०८ भादवा वदी अष्टमी वार सोमवार के दिन क्रुतिका नक्षत्र में जोधपुर के पास नागौर नामक परगने पीपासर गांव में हुआ था। और इनकी जाति पंवार (परमार्) वंशी राजपूंतो की थी। इनके पिताजी का नाम लोहटजी राहात था जो एक सम्पन्न व्यक्ति थे। इनकी माताजी का नाम हासांदेवी अर्थात हांसलदे था जिनके पिता का नाम मोकमजी भाटी था।
श्री गुरु जम्भेश्वरजी भगवान अपने पिताजी के इकलोती संतान थे। इनकी बाल्यावस्था के समय इनकी एक विशेषता यह रही कि ये कदापि कम बोलते थे। इसलिए इन्हें लोग गूंगा एवं गहला तक कहने लगे थे। मगर वे उस समय कुछ ऐसे कार्य कर देते थे जिसे देखकर लोग चकित रह जाते थे। इसके आधार पर कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि इसी कारण ये जाम्भा (या अचम्भाजी) भी कहे जाने लगे थे।
जब ये ७ सात वर्ष की अवस्था में हुए तब इन्हें गाय चराने के काम में लगाया था ये अपनी गायों को अपने आसपास के जंगलों में चराया करते थे। जब ये लगभग १६ सौलह वर्ष के हुए तब इनकी भेंट गुरु गोरखनाथजी से हुई जिनसे की ज्ञान प्राप्त किया था।
श्री गुरु जम्भेश्वरजी री मुंह से निकली शब्दवाणी से सिध्द होता है कि इन्होंने कोई विवाह नहीं किया और अखंड ब्रम्हचारी रहे। जिनके सामने इअनके माता पिता को भी झुकना पडा। इनके पिता लोहटजी का देहान्त सम्वत १५४० में हो गया था. तथा कुछ समय पश्चात इनकी माता हांसादेवी भी चल बसी थी।
वैसी दशा में गुरु जम्भेश्वरजी अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को परित्याग दिया और समराथल धोरे के रेतीले टीले पर रहने लगे गए। समराथल पर रहते हुए इन्होंने संवत १५४२ की कार्तिक वदि अमावस्या सोमवार के दिन विशनोई संप्रदाय को बीस और नव धर्मो की शिक्षा दि और वेदों और मंत्रों द्वारा पाहाल कलश की स्थापना करके पाहाल रुपी अम्रुत पीलाया जब से विशनोई समाज प्रारंभ हुआ। उन दिंनो मे इन्होंने अकाल पीडिंतो और गरीबों की अन्न-दान से सहायता करके समाज को अपनाया। इन्होंने बहुत जनसमूहों में उपस्थित होकर सर्व मानव मात्र को मुख्य कर्तव्यों का साक्षात परीक्षात्मानुभव का उपदेश देते समय १२० अनमोल शब्द कहे थे जो आज भी प्रेम पूर्वक हर घर में मन्दिरों में हवन इत्यादि करते समय बोले जाते है।
इनका स्वर्गवास गांव लालासर के जंगल में सम्वत १५९३ को हुआ।
श्री १०८ श्री गुरु जम्भेश्वरजी भगवान की जीवनी
श्री गुरु जम्भेश्वरजी भगवान अपने पिताजी के इकलोती संतान थे। इनकी बाल्यावस्था के समय इनकी एक विशेषता यह रही कि ये कदापि कम बोलते थे। इसलिए इन्हें लोग गूंगा एवं गहला तक कहने लगे थे। मगर वे उस समय कुछ ऐसे कार्य कर देते थे जिसे देखकर लोग चकित रह जाते थे। इसके आधार पर कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि इसी कारण ये जाम्भा (या अचम्भाजी) भी कहे जाने लगे थे।
जब ये ७ सात वर्ष की अवस्था में हुए तब इन्हें गाय चराने के काम में लगाया था ये अपनी गायों को अपने आसपास के जंगलों में चराया करते थे। जब ये लगभग १६ सौलह वर्ष के हुए तब इनकी भेंट गुरु गोरखनाथजी से हुई जिनसे की ज्ञान प्राप्त किया था।
श्री गुरु जम्भेश्वरजी री मुंह से निकली शब्दवाणी से सिध्द होता है कि इन्होंने कोई विवाह नहीं किया और अखंड ब्रम्हचारी रहे। जिनके सामने इअनके माता पिता को भी झुकना पडा। इनके पिता लोहटजी का देहान्त सम्वत १५४० में हो गया था. तथा कुछ समय पश्चात इनकी माता हांसादेवी भी चल बसी थी।
वैसी दशा में गुरु जम्भेश्वरजी अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को परित्याग दिया और समराथल धोरे के रेतीले टीले पर रहने लगे गए। समराथल पर रहते हुए इन्होंने संवत १५४२ की कार्तिक वदि अमावस्या सोमवार के दिन विशनोई संप्रदाय को बीस और नव धर्मो की शिक्षा दि और वेदों और मंत्रों द्वारा पाहाल कलश की स्थापना करके पाहाल रुपी अम्रुत पीलाया जब से विशनोई समाज प्रारंभ हुआ। उन दिंनो मे इन्होंने अकाल पीडिंतो और गरीबों की अन्न-दान से सहायता करके समाज को अपनाया। इन्होंने बहुत जनसमूहों में उपस्थित होकर सर्व मानव मात्र को मुख्य कर्तव्यों का साक्षात परीक्षात्मानुभव का उपदेश देते समय १२० अनमोल शब्द कहे थे जो आज भी प्रेम पूर्वक हर घर में मन्दिरों में हवन इत्यादि करते समय बोले जाते है।
इनका स्वर्गवास गांव लालासर के जंगल में सम्वत १५९३ को हुआ।