स्थापना

चौदहवी और पंद्र्हवीं शताब्दी मरुप्रदेश में उसकी पशुधन की शक्ती को लूटने के लिए अनेक बाहरी आक्रमण हुए । जहां बलूचियों नें समस्त मरुप्रदेश पर एकाधिपत्य करना चाहा, वहीं पडौसी राठौडों ने अपने साम्राज्य-निर्माण की लिप्सा में इस क्षेत्र को अपनी राजनैतीक महत्त्वाकांक्षाओं का बीन्दु बनाया । यद्यपि यहां पहले से ही राजपूत जातियां निवास करती थी परंतु उनकी एकाग्रता एवं संप्रभुता मरुप्रदेश की सीमाओं में ही थी ।

अन्य जातियों तथा कबीलों में जोइया, जाट एवं भाटी मुख्य थे, जिन्होंने परस्पर लड़ते हुएअ भी कई बार संयुक्त रुप से बाहरी आक्रमणों को रोका था । जोइयों के विरोध के कारण ही राठौड़ इस क्षेत्र में साफल नहीं हो पा रहें थे और भाटियों व जोइयों के विरोध के कारण बलूची भी बार-बार निराश हो रहे थे । फिर भी यह स्थिति अन्तत सामाजिक चेतना के अभाव में लुप्त हो गई और सांखला, मोहिल, जोइया, जाट, चौहान और भाटियों के पारस्परिक झजडों से एक ऐसी बिकट राजनैतीक एवं सांस्कृतीक स्थिती उत्पन्न हो गई की थार मरुस्थल में हर क्षेत्र को परिवर्तीत करनेवाली शक्ती की आवश्यक्ता को अनुभव किया जाने लगा ताकी राजनैतीक विषमता को दूर कर एक सुदॄढ व्यवस्था को स्थापित किया जाए और जिसके अन्तर्गत समाज की सभी गतिविधियां दिशा पा सकें । इन्हीं पारिस्थितियों में जांगल देश की रेतीली धरती ने करवट बदली । उसके कंटीले फूलों में महक आयी । सरोवर लबालब भर गये एवं पांच तत्त्वों का अलौकिक प्रकाश सुखी धरा-धाम में जगमगाने लगा । राजनीती एवं धर्म दोनों ही क्षेत्रों में ऐसे क्रान्तिकारी परीवर्तन हुएअ कि सामाजिक एवं आर्थिक जीवन नये परिवेश में ढलने लगा । हां, यहा परिवर्तन एक साथ अवश्य आया पर एक-जुट होकर नहीं आया अर्थात उसने धर्म एवं राजनिती के क्षेत्र में बंट कर अपनी क्रियाओं को सम्पन्न किया । इस धरती पर इसी कारण धर्म-प्रधान राज्य की स्थापना संभव नहीं हो सकी ।

मारवाड के राठौडों के नेतृत्व में एक नये राजनैतिक गठन का अभ्युदय होने लगा एवं शकी की उपासना के माध्यम से एक नये विश्र्वास से ओत-प्रोत होकर कुलीन वर्ग का विकास होने लगा जीसने इस क्षेत्र के आर्थिक स्त्रोतों को अपने वश में कर, एक नई नगरीय किंवा अर्ध-नगरीय संस्कृति को प्रारम्भ किया । यदि यही सब कुछ होता रहता तो परिवर्तन की एक दीशा बनी रहती, परंन्तु इसी समय कुछ ऐसे संतो ने अवतरित होकर उन लोगों का भी ध्यान आकर्षित किया, जो कुलीन वर्ग की गतिविधियों से बहुत दूर थे । और बहूसंख्यक भी थे तथा जिनके क्रिया-कलापों पर जांगल देश की मूल संस्कृती टीकी हुई थी । परीवर्तन को पूर्नता तक पहुंचाने के लिए इस वर्ग में भी चेतना लानी आवश्यक थी । उसके विश्रॄंखलित जीवन को उस चेतना के माध्यम से एक नवीन एवं स्पष्ट दिशा देनी थी । यह पुनीत एवं महान कार्य संत जाम्भोजी के द्वारा संपत्र हुआ । राजस्थानी समाज उस समय कुलीय, जातीय व कबीलों की फिरकापरस्ती में बंटा हुआ था । हिन्दू समाज चार वर्णो में विभक्त था ही, परंन्तु कबील तथा गोत्रो ने एक विचित्र संश्यात्मक स्थिती बना रखी थी । यद्यपि राजस्थान का मरुस्थलीय भाग जाती की दृष्टि से जाट गोत्रों से आच्छादित था परंतु अन्य जातियां भी एक सम्मानजनक संख्य में निवास कर रही थी । यह विभाजित समाज सामाजिक एकता से कोसों दूर तथा पाप, अज्ञान एवं लोभ आदि में परस्पर संघर्षरत होकर अपने दैनंदिन क्रिया-कलापों को ही बिकट बनाये हुए था ।

मरुस्थलीय निवासी मद्य, मांस और भांग का अबाध प्रयोग करते थे । तंम्बाकु का प्रचलन भी प्रारम्भ हो चुका था । लोग तीज-त्योहार पर अफीम घोलकर मेहमानों को पिलाया करते थे । समाज में अफीम का प्रयोग नशे के रुप में प्रचुर मात्रा में होने लगा था । श्री वील्होजी महाराज के एक छप्पय से ज्ञात होता है । कि लोग अफीम न मिलने पर अफीम न मिलने पर अफीम के छिलकों को ही कूट्-पीस कर व्यसन पूर्ती कर लेते थे और दिन भर मस्त पडे रहा करते थे । वामपंथी सम्प्रदायों के प्रचलन से भी पशुहिंसा और मद्य-मास आदी के प्रयोग में वृध्दि हो रही थी । हिन्दुओं की बहुत सी जातीयां जीव-हत्या करती थे । यहां तक कि इस बात के उल्लेख भी प्राप्त होते है कि जाटों में भी मौज-मस्ती के लिए जीव-हत्या की जाती थी । भांग का प्रयोग भी अन्यतम व्यसन था । मरुस्थल की यह सामाजीक स्थिती अपनी विषमता को धार्मिक स्थिती से और अधिक सुदॄढ कर रही थी ।

वैसे कहने को भारत के सभी धर्म एवं सम्प्रदाय इस भूखण्ड में अपने सीमित या विस्तृ प्रभाव लेकर विधमान थे, लेकिन पुरातत्व सामग्री एवं परवर्ती सन्त-साहित्य से ज्ञात होता है कि राजस्थान में नाथ-सम्प्रदाय उस समय अनेक पंथों के साथ प्रभावशाली ढंग से विद्यमान था । विशनोई संत- साहित्य में नाथ-सम्प्रदाय की बहुत सी बातों की सख्त आलोचना की गई है । शब्द-वाणी में अनेक बार रावल- जोगियों का उल्लेख आया है । कनफटे जोगियों का प्रकोप भी स्थल-स्थल पर द्रष्टव्य होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि नाथ-पंथी जोगियों आचरण में काफी आड्म्बर आ गये थे जिनसे मरुस्थलीय निवासी अपने कष्टों को दूर करने के स्थान पर अपने आपको उलझन-ग्रस्त कर रहे थे । नाथों की प्रतिद्वन्द्विता भी बडी बिकट थी । ऐसा प्रतीत होता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में नाथ सम्प्रदाय के प्रभाव के स्थान पर दूसरे साम्प्रदायिक प्रभाव अपना स्थान सुदॄढ बनाते जा रहे थे । ऐसे प्रभावों में शाक्त-पूजा का विशेष उल्लेख आता है शाक्त-पूजा में चारण देवियां अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है और इस भूखण्ड में चारणों की एक अच्छी आबादी होने के कारण इसदेवी-महिमा का गान प्रभावशाली रुप से स्थापित हो गया था । जाम्भोजी के समय में ८४ चारण देवियों में करणीजी वर्तमान थी, जिनकों आवड का अवत्तार माना जाता है । करणीजी जोधपुर व बिकानेर के राजवंशो के कुल-देवी मानी गयी है । उन्होंने अपने काल में शाक्त-पूजा को बहुत प्रबल ढंग से प्रचारीत किया एवं अपनी पद-प्रतिष्ठा को मरुप्रदेश के निवासियों के मनों में अपने चमत्कारों तथा उदारता द्वारा स्थापित किया । पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में करणीजी का प्रभाव राजस्थान के इतिहास में चमत्कार तथा उदार्ता द्वारा स्थापित किया। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में करणीजी का प्रभाव कुछ निश्चित भौगोलिक इकाइयों एवं जातियों में हि रहा । वास्तव में करणीजी उच्चकुल की ही देवीं रहीं । सामान्य आदमी इनसे प्रभावित होकर भी इनके बहुत समीप न आ स़का ।

अत; मरुस्थल की कृषक व कारीगर जातीयां अभी भी विसंगतियों का शि़कार बनी रहीं । लेकिन करणीजी के साथ एक नई लहर आयी थी, वह अपने आप में अकेली नहीं थी । मरुस्थल के लोगों को सुधारने के लिए अनेक संतों ने भी उसी समय अपने क्रिया-कलापों तथा शिक्षाओं से उन्हें प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया था । यधपि उन संतों का समय कुछ आगे-पिछे का है परुंन्तु उनका जन-सामन्य के जीवन पर पडा प्रभाव सामुहीक रुप से एक युग में ही नजर अता है । वह युग निश्चित रुप से जम्भोजी से सबंधित है।अन्य प्रसिद्ध संतो में पंचपीर राजपुत कुलों से ही आये थे । गोगाजी चौहान, मेहोजी मांगलीया, पाबुजी राठोर तो थोडा पहले हो चुके थे औरपन्द्र्हवीं शताब्दी के प्रारंम्भिक चरणों में, हडबुजी सांखला और रामदेवजी तंवर चमत्कारी व्यक्तीयों के रुप में प्रसिद्धी प्राप्त कर रहे थे। इसके अतिरिक्त नागौर खंड के तेजोजी, मालानी के योगी रावल मलीनाथ और वर्तमान बीकानेर खंड के संत जसनाथजी भी प्रसिद्ध समाज-संत के रुप में ख्याति अर्जित कर चुके थे। इनमें से अधिकांश ने मरुस्थल के जीवन के जीवन को सुधारने के लिए अथक प्रयास किया था। लेकिन प्रत्येक के कार्यस्थल की एक सीमा थी। सम्पुर्ण जनजीवन को प्रभावित करनेवाला कार्य इस मरुस्थल में एकदम संभव भी नहीं था । अतः इस सन्त परंम्परा में कुछ और संत भी आये जिनमें जाम्भोजी अग्रगण्य थे ।

विसंगतीयों में सबसे बडी दुर्गति यह थी कि मरुथल का निवासी भ्रम में डुब कर आवश्यकता व सुरक्षा के भेद को न समझ कर आत्मघाती कार्यों में संलग्न हो रहा था । प्राक्रितीक अनुदारता से ग्रस्त इस भुखण्ड को वह अपनी आवश्यकताओं के नंगेपन से उजाड और वीरान बना रहा था । उसका यह नंगापन अकाल व महमारी के समय विवशता व लाचारी से घुलकर इतना विक्रित रुप धारण कर लेता था कि वह इस प्राणदायक प्रकृती के प्राण लेने को उतारु हो जाता था । उसका यह मनोवेग वातावरणिय सन्तुलन एवं उस पर आधारित संस्क्रीती का शत्रु था । दुख की बात यह थी कि वह ये सारे कार्य अज्ञानता व भ्रम में कर रहा था । ये परिश्थीतीयां जाम्भोजी के क्रांतिकारी विचारों की प्रुषठ्भुमी थी । इसलिए उन्होने सरल व पवित्र जीवन बनाने के साथ । मरुस्थल में जीवन को बचाने की शिक्षाओं पर पुरा जोर दिया । यझपी हमें अन्य संतो की शिक्षा में भी यह बात द्रुषटीगोचर होती है, लेकीन जाम्भोजी ने इस समस्या पर सारा ध्यान केन्द्रीत कर दिया था और इस बात को उजागर किया कि बिना इसके महत्त्व को समझे, बाकी कार्यों का महत्त्व निरर्थक होगा । हम देखते है की उन्होंने न केवल मानव-सुरक्षा, बल्की वनस्पती-सुरक्षा और यहां तक कि जीव मात्र की सुरक्षा के लिए अपने अनुयायीयों को आत्मोत्सर्ग की मीमांसा भी समझाई ।

जाम्भोजी ने अपना कार्यस्थल सामान्य व्यक्ती को बनाया । वे सामान्य जन को प्रचलित धार्मिक आड्म्बरों एवं भ्रमों से निकालना चाहते थे । वे चम्तकार को धर्म नहीं मान्ते थे बल्की आचरण को शुद्ध कर अध्यात्म्-लाभ कोही धर्म समझते थे । ऊन्होने जो २९ नियम बनाए, वे नियम भारतीय जीवन के संस्कारों को कर्मकांड से मुक्त कर उसके उच्च स्वरुप को मर्यादित करते है तथा उसमें आये आड्म्बरों व जटिलताओं को दुर कर उसे सरल रुप में प्रस्तुत करते हैं। ये २९ नियम मरुस्थलीय समाज की प्रचलीत कुरीतीयों को दुर करनेवाला तो हैं ही, साथ ही सही अर्थों में उनका एक प्रत्युतर भी है ।

जाम्भोजी भारतीय संस्क्रिती के सही अर्थों में उत्यापक हैं और कई अंशों में उसके नये सिरे से कर्ता भी है ।

Site Designed-Maintained by: TechDuDeZ,Pune